साधना का मूल है अनासक्ति- आचार्य महाश्रमण
दैनिक भीलवाड़ा न्यूज भीलवाड़ा- तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्य महाश्रमण की अमृतमय देशना जन-जन के अध्यात्म की साधना और आत्म रमण की भूमिका का मार्ग प्रशस्त कर रही है। भीलवाड़ा का चातुर्मासिक प्रवास त्याग, तपस्या, जप ध्यान, स्वाध्याय एवं गुरू सन्निधि में आत्मोत्थान के अनेक उपक्रमों द्वारा सतत प्रवर्धमान है। अध्यात्म के सुमेरू आचार्य श्री महाश्रमण ने महाश्रमण सभागार से मंगल उद्बोधन देते हुए कहा कि अध्यात्म की साधना का एक अति महत्वपूर्ण अंग है संवर। भीतर की यात्रा करने के लिए बाहर का संवरण करना अपेक्षित है। इंद्रिय विषयों के प्रति अनासक्ति की भावना रखते हुए व्यक्ति भीतर में रमण कर सकता है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति का विषयों के प्रति अनाकर्षण बढ़ता है त्यों-त्यों वह उत्तम तत्व की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकता है। विषयासक्त होना और भीतर जीना विरोधी बातें है। साधना का मूल अनासक्ति है। जीवन व्यवहार में समुदाय और व्यक्ति के प्रति अनासक्त रहकर ही भीतर जीया जा सकता है।
संवर के दस प्रकारों का वर्णन करते हुए आचार्यवर ने कहा की इंद्रिय, मन, वचन, काय और उपकरण संवर यह पांच मुख्य है। संवर एक अनुशासन है। इंद्रिय, मन, वचन, काय और उपकरणों का संवर करना आत्मानुशासन की साधना है। व्यक्ति संसार में रहते हुए पूर्णतया पदार्थों से विरक्त हो जाए यह तो कठिन है परंतु पदार्थों के उपयोग के प्रति अनासक्त रहकर भीतर स्थित हो सकता है। 'रहो भीतर जीयो बाहर' इस सूत्र का आत्मसात संवर की साधना से ही संभव है।